रविवार, 15 दिसंबर 2019

यूरिया संकट किसान परेशान  केंद्र और राज्य सरकार एक से दूसरे सर टोपी करने में लगी है, 

यूरिया संकट किसान परेशान 
केंद्र और राज्य सरकार एक से दूसरे सर टोपी करने में लगी है, 


सरकार ने भी यूरिया के प्रचार में कसर नहीं छोड़ी 


यूरिया खेतों का नायक बन गया


बैतूल15दिसम्बर।।वामन पोटे।। मध्यप्रदेश में यूरिया को लेकर गंभीर हालात बन गए हैं।रबी सीजन में किसान सुबह से शाम तक यूरिया के लिए कतार में खड़े हो रहे हैं। कई जगहों से मारपीट की खबरें भी आ रही हैं तो कही यूरिया से लदे ट्रक पुलिस थाने और पुलिस की सुरक्षा में खड़े करने पड़ रहे है  लेकिन इस संकट को हल करने की बजाय केंद्र और राज्य सरकार एक दूसरे सर पर टोपी ट्रांसफर करने में लगी हैं।
क्या यूरिया के दिन लद गए हैं? यह सवाल इसलिए क्योंकि जिस यूरिया ने कई गुणा पैदावार बढ़ाकर किसानों को गदगद किया, वही अब उन्हें खून के आंसू रुला रहा है। 
देश को कृषि के क्षेत्र में मजबूत बनाने के उद्देश्य से यूरिया का इस्तेमाल हरित क्रांति 1965-66 के बाद पूरे देश में किया गया।
खेती से होने वाला नुकसान यूरिया के उपयोग से मुनाफे में बदल जाएगा। हुआ भी ऐसा ही। पैदावार बढ़ने से किसान बेहद  खुश थे।आखिर तीन गुना ज्यादा फसल पाकर कौन किसान होगा जो खुशी से फूला नहीं समाएगा। देखते ही देखते यूरिया खेतों का नायक बन चुका था। 
बैतूल जिले सहित पूरे प्रदेश और देश मे रबी सीजन और खरीफ के सीजन में यूरिया के  लिए मारामारी बनी रहती है ।कृषि विभाग और कृषि वैज्ञानिक भी किसानों को यूरिया का कम उपयोग करने की कागजी सलाह देते है पर खेतो में जाकर ज्यादा यूरिया के उपयोग से होने वाले नुकसान को नही बताते किसान अधिक उपज लेने के चक्कर मे अपनी बर्बादी की कहानी लिखने में लग गया है ।1960 के दशक में धनाढ्य किसानों ने इसका उपयोग शुरू किया धीरे धीरे इसके उपयोग का दायरा बढ़ते गया और 1975 के बाद से गांव गांव गरीब किसान भी धीरे धीरे फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए कम मात्रा में यूरिया की तरफ आकर्षित हो गया ।जब यूरिया का उपयोग नही किया जाता था तब एक एकड़ में चार ,पांच बोरे गेंहू का उत्पादन होता था ।जैसे ही यूरिया का उपयोग शुरू हुआ वैसे ही उत्पादन भी बढ़ने लगा शुरूआती दौर में किसानों ने 5किलो से 10 किलो यूरिया प्रति एकड़ उपयोग किया तो गेंहू का उत्पादन 10 बोरे प्रति एकड़ होने लगा फिर धीरे धीरे किसान यूरिया की और आकर्षित होने लगा और फिर एक बोरी प्रति एकड़ और अब तीन से चार बोरी प्रति एकड़ उपयोग करने लगे गेंहू का उत्पादन भी बड़ा और यह 20 से 25 बोरे पर पहुच गया अब किसान की जरूत बन गया यह यूरिया भाजपा और कांग्रेस की गले की फास बन गया है।
सरकार ने भी यूरिया के प्रचार में कसर नहीं छोड़ी थी। ऊपर से चला यह प्रचार नीचे तक जोर मारने लगा और किसान तो इसकी ऐसे तारीफ करने लगे जैसे अभी फिल्मी हीरो पेप्सी और कोला की करते हैं। इसकी वजह भी तो थी। भारतीय किसानों ने बीते दो दशक में आफत का दौर बहुत  देखा है। आसमान और जमीन से निकलती उम्मीदों में झूलते रहे। एक किसान को भला क्या चाहिए? उसकी खेतों की उपज उसके कुटुंब का पेट भरे। और जब खेतों की सामान्य उपज से तीन गुना ज्यादा मिलने लगा तो जैसे लगा कि देवी अण्णपूर्णा प्रसन्न हो गई। 
नाइट्रोजन पौधों के लिए जरूरी होती है क्योंकि यह पौष्टिक तत्वों को प्रतिबंधक बनाता है। क्लोरोफिल और प्रोटीन सिंथेसिस के जरिए पौधे इससे भोजन तैयार करते हैं। प्राकृतिक रूप से यह जरूरी पौष्टिक तत्व मिट्टी में डाइएजोट्रोफ जीवाणु के जरिए मौजूद रहते हैं। ये दाल जैसे पौधों की जड़ों में उपस्थित होते हैं। लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद यह प्राकृतिक मौजूदगी पर्याप्त नहीं रही क्योंकि यह बढ़ती आबादी को भोजन उपलब्ध कराने में असमर्थ थी। इस कारण प्राकृतिक रूप से मौजूद नाइट्रोजन के पूरक के लिए कृत्रिम फर्टीलाइजर का आविष्कार किया गया। 


यूरिया जीवन से जहर तक का सफर


एक हालिया अध्ययन में पहली बार भारत में नाइट्रोजन की स्थिति का मूल्यांकन किया गया है जो बताता है कि यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल ने नाइट्रोजन चक्र को बुरी तरह प्रभावित किया है।
 यूरिया के इस्तेमाल ने अब तक देश में खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने में योगदान दिया है। लेकिन इसने भारत को उलझन भरी परिस्थितियों में भी डाल दिया है। एक तरफ इसे यूरिया की जरूरत है क्योंकि किसानों को लगता है कि उनकी जमीन को यूरिया की आदत हो गई है। उन्हें यह भी डर है कि अगर रसायन का इस्तेमाल बंद कर देंगे तो उत्पादकता बेहद नीचे चली जाएगी। वहीं दूसरी तरफ इसका अत्यधिक इस्तेमाल पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है जिसे नियंत्रित करने की जरूरत है।


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