मंगलवार, 14 जनवरी 2020

आलेख- दीपक पाचपोर.......गांधी के सत्याग्रह की विरासत को आगे बढ़ा रही हैं शाहीन बाग़ की औरतें

 


नागरिकता कानूनों के खिलाफ भारत ही नहीं, दुनिया भर में चर्चित हो गये दिल्ली के शाहीन बाग की महिलाओं के साहसिक प्रदर्शन ने साबित कर दिया है कि महात्मा गांधी द्वारा आविष्कृत नागरिक स्वातंत्र्य व अधिकारों का रक्षा उपकरण ‘सत्याग्रह’ आज भी कारगर है। निस्संदेह, सामान्यजनों के पास उपलब्ध इस लोकतांत्रिक शक्ति में लोगों का विश्वास लौटाने का श्रेय इन सत्याग्रही महिलाओं को जाता है। खासकर ऐसे वक्त में जब ज्यादातर सांवैधानिक संस्थाएं और लोकतंत्र के पाये एक-एक कर दरक रहे हों। उन पर से सबका विश्वास उठता जा रहा हो। 


इस प्रदर्शन का एक सिरा हमारी आजादी की लड़ाई से जुड़ा हुआ है, जो शाहीन बाग की आंदोलनकारी औरतों की ताकत का स्रोत तो है ही, देश की सत्याग्रही विरासत का चमकदार  हिस्सा भी है जो बापू हमें सौंप गये हैं। कह सकते हैं कि शाहीन बाग का आंदोलन गांधी दर्शन की भाव भूमि पर खड़ा है। इसमें नागरिक आजादी व अधिकारों को बनाए-बचाए रखने की सतर्कता है तो सर्व धर्म समभाव के स्वर भी। बापू के चलाए आंदोलनों व रचनात्मक कार्यक्रमों में महिला-पुरुषों की समान भागीदारी थी, जिसकी झलक भी हमें इस प्रदर्शन में दीखलाई देती है। याद करें कि गांधी के सभी कार्यक्रमों में शामिल महिलाएं कमज़ोर वर्ग की सदस्य होने के नाते कोई रियायत नहीं लेती थीं और न ही पुरुषों से कम कष्ट झेलती थीं व उनका योगदान कतई कमतर नहीं होता था। वैसा ही मंजर कुछ इधर भी है। अपने साथ हिमालय की सर्द हवाएं लेकर आने वाला शीतकाल कैसे संपूर्ण उत्तर भारत को कंपकपाता है, यह किसी से छिपा नहीं है। उस वक्त जब सारा देश कड़कड़ाती ठंड में रजाइयों में दुबका होता है, शाहीन बाग की ये दमदार महिलाएं भारत के संविधान की मूल आत्मा को बचाकर रखने के लिए महीने भर से रात-रात जागकर आंदोलनरत हैं। 


महात्मा जी के 150वें जयंती वर्ष में इस बात को भूलना कठिन है कि दुनिया में संभवतः भारत ही ऐसा देश है जिसके स्वतंत्रता के आंदोलन में महिलाओं ने पुरुषों के साथ बराबरी का योगदान दिया है। सरोजिनी नायडू, सुशीला नैयर, विजयलक्ष्मी पंडित से लेकर सुचेता कृपलानी तक और अरूणा आसफ अली से लेकर गांवों-शहरों की अनगिनत महिलाएं गांधी जी के नेतृत्व में चली आजादी की लड़ाई में शरीक हुई थीं। सच तो यह है कि औरतों की ताकत का सही मूल्यांकन गांधी जी ने ही सर्वप्रथम किया था। उनका कहना था कि- “महिलाओं को कमज़ोर समझना निंदनीय है। यह पुरुषों का महिलाओं के साथ किया गया अन्याय है।“ उन्हें बलशाली समझने का कारण संभवतः स्त्रियों की नैतिक शक्ति है। तभी तो वे कहते थे कि “अगर नैतिक शक्ति के आधार पर क्षमता का आकलन किया जाये तो महिलाएं पुरुषों से ज्यादा श्रेष्ठ हैं।“ उनके अनुसार- “उन्हें अबला पुकारना महिलाओं की आंतरिक शक्ति को दुत्कारना है। मैंने स्वतः ही महिला सेवा को रचनात्मक कार्यक्रम में शामिल किया है, क्योंकि सत्याग्रह ने महिलाओं को जिस तरह अंधेरे से बाहर निकाल दिया है वैसा कम समय में और किसी भी उपाय से नहीं हो सकता था।“ बापू ने उनकी आंतरिक शक्ति का उपयोग रचनात्मक कार्यों में ही नहीं वरन सत्याग्रह में भी किया था। 


प्रतिष्ठित समाजसेवी इला भट्ट ने ‘गांधी ऑन वीमेन’ नामक पुस्तिका (पुष्पा जोशी द्वारा संपादित) की भूमिका में लिखा है- “महिलाओं ने उनके नेतृत्त्व में चले जन आंदोलन में सहज ढंग से भाग लिया। इससे भारतीय महिलाओं के जीवन में हमेशा के लिए एक मोड़ आ गया। मैं यह कहना चाहती हूं कि यदि गांधी जी यह मोड़ न लाए होते तो मैं वह न होती जो आज हूं। यह बात आज की हर महिला पर लागू होती है।“ इस कथन से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि बापू ने महिलाओं को किस सघनता से व बड़े पैमाने पर आजादी के संघर्ष से  जोड़ा था। सभी जानते हैं कि बापू के पुकारे गये प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में गांधी व अन्य प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के बाद सरोजिनी नायडू ने ही आंदोलन की कमान संभाली थी। 


आजाद भारत में पढ़ी-लिखी व मध्यवर्गीय महिलाओं की प्रतिरोधात्मक सत्याग्रहों व प्रदर्शनों में भागीदारी वैसी नहीं रही है, जैसी गांधी के वक्त पर थी। निचले वर्गों में अलबत्ता सत्याग्रह का इस्तेमाल अब भी हो रहा है। आर्थिक रूप से निम्न पायदान पर बैठी महिलाएं तो अपने अधिकारों के लिए रास्तों पर आने से नहीं हिचकिचातीं पर अन्य वर्गों की महिलाओं की भागीदारी का इनमें अभाव देखा गया है। समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और समाजवाद के उनके स्वप्नों को पाने के लिए सत्याग्रह का क्या महत्व है, यह मराठी के एक बड़े लेखक आचार्य शंकर दत्तात्रेय जावड़ेकर से समझा जा सकता है। उन्होंने गांधी और कार्ल मार्क्स का समन्वय करते हुए अपनी पुस्तक ‘आधुनिक भारत’ में सत्याग्रह के महत्व पर लिखा है- “लोगों के पास कभी भी उतने शस्त्र नहीं हो सकते जितने राज्य की सेना के पास होते हैं। तो, लोगों के पास ऐसे कौन से साधन हो सकते हैं, जिनसे अपने अस्तित्व को वे प्रभावशाली बना सकते हैं? सत्याग्रह ऐसा साधन है। लोकसमाज अगर वह साधन अपनाता है, तो उसमें से ‘सत्याग्रही समाजवाद’ की स्थापना होगी। ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ में अब ‘सत्याग्रह’ जुड़ जाना चाहिए, तब उसकी परिपूर्ति हो जाएगी।“
दुनिया में महिलाओं का ऐसा जज़्बा रूस की क्रांति में भी देखा गया था, जब नाजियों को पराजित करने के लिए वहां की सेना ने एक-एक इंच पर उन्होंने जबर्दस्त लड़ाई की थी और विश्व को तानाशाही व साम्राज्यवाद से मुक्ति दिलाई थी। जब रूस के घर-घर से पुरुष युद्ध के मैदानों पर थे तब घरों के अलावा अस्पताल, स्कूल, कृषि व कारखानों के मोर्चों पर रूसी महिलाएं ही डटी हुई थीं। उसका उद्देश्य भी समाजवादी समाज की स्थापना के लिए रास्ता बनाना था। शाहीन बाग की महिलाओं का ज़ज्बा कुछ इन्हीं दोनों तरह का दृष्टिगोचर होता है। वे अपने साथ देशवासियों के लिए एक बेहतर समाज बनाना चाहती हैं। 


नज़्मकार कैफ़ी आजमी की प्रसिद्ध नज़्म ‘उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे’ में उन्होंने महिलाओं को जिस प्रकार आगे बढ़कर अपने वजूद, बराबरी के अधिकारों, मुक्ति के लिए संघर्ष का आह्वान किया है, वह न केवल शाहीन बाग की औरतों में दिख पड़ता है, बल्कि वह गांधी जी की भावनाओं के भी अनुरूप है। उस लम्बी नज़्म की निम्नलिखित कुछ पंक्तियां शाहीन बाग की सत्याग्रही महिलाओं पर तो सटीक बैठती ही हैं, गांधी जी नारियों को जिस रूप व तासीर में देखना चाहते थे, वह भी इन पंक्तियों में झलकता है-
कद्र अब तक तेरी त़ारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं बस अश्क फ़िशानी ही नहीं
तू हकीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे 
उठ मेरी जान! मरे साथ ही चलना है तुझे
(अर्थ- अश्क फ़िशानी- आंसू बहाना, उनवान- शीर्षक)


वैसे तो कौन सा घटनाक्रम आगे जाकर क्या रूप लेता है, यह कहना मुश्किल होता है लेकिन शाहीन बाग के प्रदर्शन को उसके वर्तमान स्वरूप में सशक्त अहिंसक प्रतिरोध तो कहा ही जा सकता है। प्रदर्शन, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, सामाजिक सुधार, जो भी हो, ये बदलाव या परिष्कार के ही विभिन्न चरण हैं। गांधी और मार्क्स दोनों ही इन सारे सामाजिक उथल-पुथल का उत्कर्ष क्रांति या बड़े बदलाव में निरूपित करते हैं। दोनों ही चिंतन प्रणालियों का केंद्रीय भाव संवेदना और प्रयोजन मनुष्य मात्र की मुक्ति है। प्रसिद्ध गांधीवादी लेखक व कार्यकर्ता रहे दादा धर्माधिकारी ने अपनी किताब ‘लोकतंत्रः विकास और भविष्य’ में कहा है- “वास्तविक क्रान्ति की प्रेरणा हमेशा नीचे वालों को देखकर ही होती है। क्रान्ति की मूल प्रेरणा द्वेष की नहीं, मानवीय सहानुभूति की होती है। उसमें जब मत्सर, द्वेष आदि विकार पैदा होते हैं, तब क्रान्ति नष्ट होती है।“ इस परिभाषा के अंतर्गत भी शाहीन बाग की महिलाओं का आंदोलन गांधी द्वारा हमें सौंपी गयी सत्याग्रह की विरासत का ही हिस्सा है। इस आंदोलन को सफल बनाने में मदद करना देश के हर उस व्यक्ति की जिम्मेदारी है जो एक प्रगतिशील व आधुनिक भारत चाहता है, जिसमें गांधी व बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा परिकल्पित स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की बुनियाद पर बना समाज बसता हो।


साभार 


देशबंधु 


प्रख्यात लेखक -दीपक पाचपोर


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